आत्म-स्वरूप  स्थिति -3

No• 077 

फिर भगवान अर्जुन को बतलाते हैं कि हे अर्जुन ! मैं  सर्वज्ञ हूँ अर्थात् मैं सब कुछ जानता हूँ , ज्ञाता  हूँ ,  अनादि  नियंता  हूँ ,  सूक्ष्म  से  भी अति सूक्ष्म , सबका  अधारमूर्त ,  दिव्य   प्रकाश  स्वरूप , अशरीरी  हूँ !  जो श्रीकृष्ण के  रूप में अर्जुन देख रहा   था  ,   वह   परमात्मा   नहीं   था  !   इसलिए परमात्मा पुनः अपना स्वरूप  स्पष्ट  करते हैं कि हे अर्जुन !  मैं सर्वज्ञ  हूँ , सब  कुछ  जानने  वाला  हूँ , तभी तो कहा कि महाभारत के युद्ध के पहले स्वयं श्रीकृष्ण ने भी  थानेश्वर  की  पूजा  की ! आज  भी कुरूक्षेत्र  के मैंदान में  चले जाओ वहाँ थानेश्वर का मन्दिर है , शिव  का  मन्दिर  है जहाँ दिखाते हैं कि स्वयं  श्रीकृष्ण  ने भी  पूजा  की और पांडवों से भी करायी !

                                       वृंदावन चले जाओ वहाँ गोपेश्वर  का मन्दिर है ! जहाँ दिखाते हैं कि बचपन से ही श्रीकृष्ण  ने गोपों  के  साथ मिल करके शिव की पूजा की ! वो परमात्मा  शिव है जिस की पूजा देवताओं  ने  भी  की !  रामेश्वरम्  में श्रीराम ने भी शिव  की  पूजा  की  क्योंकि  रावण से  युद्ध करना था !  रावण   जिसको   अपनी   शक्त्ति  पर  इतना घमंड था वह ऐसे ही घमंड नहीं  कर  रहा  था  कि मुझे  कोई हरा नहीं  सकता ! इसलिए स्वयं श्रीराम ने भी सबसे पहले शिव  की पूजा की , उसके  बाद रावण  के  साथ  युद्ध  करके   उसके  विजय  हुए ! अगर वो महादेव * की शक्त्ति को प्राप्त नहीं करते  तो  रावण  के  ऊपर  विजय  प्राप्त करना असंभव हो जाता ! इसलिए उनको कहा जाता है– ” देवों के देव महादेव और  महादेव अपना रूप स्पष्ट करते हैं कि हे अर्जुन ! मैं  सर्वज्ञ  आनिद  सत्या  नियंता , सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म , सबका आधारमूर्त , नित्य दिव्य  प्रकाश  स्वरूप  अशरीरी  हूँ  ,  मुझे   अपना  कोई  शरीर  नहीं है ! मैं अशरीरी हूँ ! तब अर्जुन के सामने   यह   बात  पुनः   आती  है ,  ध्यान  अर्थात् परमात्मा के उस निराकार , अशरीरी  रूप  में  मन  को  स्थिर करना है !

                   यहाँ महादेव अर्थात् निराकार  शिव परमात्मा  ना  कि शंकर , शंकर  तो अकारी देवता है ! शास्त्रों  में भी  और जब  कहीं पूजा भी होती हैं तो कहा जाता है कि विष्णु  देवता  नमः , ब्रह्या  देवता नमः , शंकर  देवता नमः  और शिव परमात्मा  नमः ” !  इससे  सिद्ध होता  है कि शिव अलग है और शंकर  अलग  है ! शिव परमात्मा है कल्याणकारी   और   शंकर   अकारी    देवता  है विनाशकारी  !  और ☝ ऊपर  जो  वर्णन  किया  गया   वो  भी   यही   सिद्ध   करता   है  कि  गीता  का भगवान शिव है ना कि श्रीकृष्ण

078     आत्मस्वरूप  स्थिति                   

                    एक बार एक व्यक्त्ति को स्वप्न आता है और स्वप्न में अपनी जीवनयात्रा को देखता है ! क्या  वह  देखता है  कि समुद्र के किनारे  चल  रहा है ! जब ध्यान से देखता  है , तो कहींकहीं दो पैरो के निशान थे , और कहींकहीं चार पैरों के निशान थे ! फिर  और  ध्यान से  देखता  है  कि जब उसके जीवन के सुख भरे दिन थे , उत्साह भरे दिन थे तब चार निशान  दिखाई देने लगते हैं ! और जब उसके जीवन के दुःख  भरे  दिन  थे , दर्द  भरे दिन थे , तो सिर्फ दो निशान दिखाई दिए !

                   वह मन ही मन भगवान से बातें करने लगा ! भगवान  जी  मैं  समझता  था कि  तुम  हर वक्त्त  मेरे साथ  हो ! जीवन  भर मेरे साथ रहे हो ! लेकिन  आज मैं  क्या देखता हूँमेरे सुख के दिनों मेरे  साथ  चलते  रहे ! तो  ये दो तेरे पैरों के निशान और  ये  दो  मेरे  पैरों  के  निशान  लेकिन जब मेरे जीवन  में  दुःख  आया ,  दर्द आया , जब मुझे तेरी ज़्यादा  आवश्यकता  थी  ! तब  तुम  मुझे छोड़कर कहाँ चले गये ?

                 भगवान मुस्कराते हैं और कहते हैं नहीं बच्चे तब  भी मैं तेरे साथ था ! तेरे सुख भरे दिन में मैं तेरी अंगुली  पकड़कर  चल  रहा  था !  इसलिए तुझे चार निशान दिखाई दिए ! दो तेरे और दो मेरे ! लेकिन तेरे दुःख भरे दिन में , तेरे  कष्टों भरे दिन में तेरा दुःख और दर्द मुझ से भी सहन नहीं हुआ और इसलिए मैं तुझे और  ज़्यादा  चलने  का  कष्ट  नहीं देना  चाहता  था  ! तो  तुझे अपनी   बाहों  में  उठा  लिया ! ये  जो  दो  निशान  दिखाई  दे  रहे हैं वो तेरे नहीं वो मेरे हैं ! ये ईश्वर का प्यार !

          लेकिन इस प्यार का अनुभव तब हो सकता है जब  हमारे  ह्रदय में  भी  ईश्वर के प्रति उतना ही प्यार  हो  और  जब   हम   इतने   अनन्य  भाव  से परमात्मा  को याद करें तो  मन कभी भी विचलित नहीं हो सकता है ! जो  इतना  प्यार  ह्रदय में लेकर बैठते  हैं ,  भगवान  को  याद  करते  हैं  फिर  देखो भगवान हर वक्त्त किस तरह साथ देता है !